प्रीति और प्रेम
सामान्यतः 'प्रीति' और 'प्रेम' ये दोनों शब्द समान ही प्रतीत होते हैं, फिर भी इनके प्रयोग में सूक्ष्म अंतर है।
प्रीति शब्द - प्री +क्तिन् - से बना है। जिसका अर्थ - प्रसन्नता, आह्लाद, संतोष, ख़ुशी या आनंद हैं।सामान्यतः प्रीति अपने से छोटे के प्रति होने वाला स्नेह ही है। परंतु लौकिक दृष्टि से प्रीति किसी - किसी को वस्तुओं से भी हो जाती है।
सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल ने - प्रीति का संबंध सत्त्वगुण से जोड़ा तो वहीं रजोगुण का अप्रीति के साथ तथा तमोगुण का विषाद के साथ संबंध बताया है।
(प्रीत्यप्रीतिविषादात्मका........)
किसी उत्तम और सुंदर बात या वस्तु अथवा श्रेष्ठ सत्ता के प्रति स्वाभाविक रूप से होने वाला सात्त्विक झुकाव या प्रवृत्ति ही वास्तविक रूप में प्रेम है। यथा-ईश्वर, प्रकृति देश या साहित्य के प्रति होने वाला प्रेम।
लौकिक दृष्टि से प्रेम शब्द का प्रयोग मोहजन्य पदार्थ या शारीरिक व्यापार के संदर्भ में होता है।
श्रृंगारिक क्षेत्र में यह स्त्री-पुरुष के उस प्रेम का प्रतीक है जो साधारण अनुराग और स्नेह से बहुत कुछ आगे बढ़ा हुआ हो। इसीका समार्थक शब्द 'प्रणय' है।
व्युत्पत्ति की दृष्टि प्रीति और प्रिय एक ही मूल धातु 'प्री' से बने हुए हैं।
प्रिय का अर्थ है - जिसे देखने से हमारे मन में तृप्ति या प्रसन्नता उत्पन्न होती है।
ऎसी वस्तु के प्रति (जो हमें प्रिय है) हमारे मन में जो उत्कंठा पूर्ण प्रवृत्ति होती है, वही 'प्रीति' है।
प्रीति और प्रेम इन दोनों शब्दों के स्थान पर हिंदी भाषा का प्यार तथा अरबी भाषा का मुहब्बत शब्द भी प्रयुक्त होता है।
संस्कृत भाषा का शब्द स्नेह जो कि स्निह् +घञ् से निर्मित होता है उसका भी इन्हीं अर्थों में प्रयोग किया जाता है। (स्नेह का अर्थ है - अनुराग, प्रेम, चिकनापन या चिकनाहट।)
द्रव्य सदैव नीचे की ओर बहता है, उसी तरह तात्त्विक दृष्टि से जो प्रीति अपने से छोटों के प्रति होती है, वस्तुतः वही स्नेह है।
अनुराग मूर्त और अमूर्त दोनों के साथ हो सकता है, परंतु स्नेह हमेशा व्यक्तियों अर्थात् जीव धारियों से ही होता है
के. आर. महिया
#शब्दसंधान
#हिन्दी_वृहद्_व्याकरणकोश_अंश
प्रीति शब्द - प्री +क्तिन् - से बना है। जिसका अर्थ - प्रसन्नता, आह्लाद, संतोष, ख़ुशी या आनंद हैं।सामान्यतः प्रीति अपने से छोटे के प्रति होने वाला स्नेह ही है। परंतु लौकिक दृष्टि से प्रीति किसी - किसी को वस्तुओं से भी हो जाती है।
सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल ने - प्रीति का संबंध सत्त्वगुण से जोड़ा तो वहीं रजोगुण का अप्रीति के साथ तथा तमोगुण का विषाद के साथ संबंध बताया है।
(प्रीत्यप्रीतिविषादात्मका........)
किसी उत्तम और सुंदर बात या वस्तु अथवा श्रेष्ठ सत्ता के प्रति स्वाभाविक रूप से होने वाला सात्त्विक झुकाव या प्रवृत्ति ही वास्तविक रूप में प्रेम है। यथा-ईश्वर, प्रकृति देश या साहित्य के प्रति होने वाला प्रेम।
लौकिक दृष्टि से प्रेम शब्द का प्रयोग मोहजन्य पदार्थ या शारीरिक व्यापार के संदर्भ में होता है।
श्रृंगारिक क्षेत्र में यह स्त्री-पुरुष के उस प्रेम का प्रतीक है जो साधारण अनुराग और स्नेह से बहुत कुछ आगे बढ़ा हुआ हो। इसीका समार्थक शब्द 'प्रणय' है।
व्युत्पत्ति की दृष्टि प्रीति और प्रिय एक ही मूल धातु 'प्री' से बने हुए हैं।
प्रिय का अर्थ है - जिसे देखने से हमारे मन में तृप्ति या प्रसन्नता उत्पन्न होती है।
ऎसी वस्तु के प्रति (जो हमें प्रिय है) हमारे मन में जो उत्कंठा पूर्ण प्रवृत्ति होती है, वही 'प्रीति' है।
प्रीति और प्रेम इन दोनों शब्दों के स्थान पर हिंदी भाषा का प्यार तथा अरबी भाषा का मुहब्बत शब्द भी प्रयुक्त होता है।
संस्कृत भाषा का शब्द स्नेह जो कि स्निह् +घञ् से निर्मित होता है उसका भी इन्हीं अर्थों में प्रयोग किया जाता है। (स्नेह का अर्थ है - अनुराग, प्रेम, चिकनापन या चिकनाहट।)
द्रव्य सदैव नीचे की ओर बहता है, उसी तरह तात्त्विक दृष्टि से जो प्रीति अपने से छोटों के प्रति होती है, वस्तुतः वही स्नेह है।
अनुराग मूर्त और अमूर्त दोनों के साथ हो सकता है, परंतु स्नेह हमेशा व्यक्तियों अर्थात् जीव धारियों से ही होता है
के. आर. महिया
#शब्दसंधान
#हिन्दी_वृहद्_व्याकरणकोश_अंश
Such an amazing post dear!! really love this. thank you so much for sharing with us.
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